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ग़ज़ल
अब की बार तो राखी पर भी भी दे न सकी कुछ भय्या को
अब उस के सूने माथे पर सिर्फ़ है रोली बाबू-जी
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
साइकल थोड़ी चौबीस इंची ऊँट चलाया करते थे
वो भी तीन चरण में भय्या क़ैंची डंडा फिर गद्दी
शारिक़ क़मर
ग़ज़ल
चेहरे पर जो हरियाली थी वो शहरों में ज़र्द हुई
गाँव का मुखिया पूछ रहा है मेरे भय्या कैसे हो
वक़ार फ़ातमी
ग़ज़ल
चाय में चीनी मिलाना उस घड़ी भाया बहुत
ज़ेर-ए-लब वो मुस्कुराता शुक्रिया अच्छा लगा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
अक्स क्या क्या थे निगाहों में फ़िरोज़ाँ 'आली'
पर ये अंदाज़-ए-नज़र वक़्त को भाया कब था
जलील ’आली’
ग़ज़ल
इस दुनिया में जो भी भाया उस को हम ने ख़ुद सा समझा
इक अर्सा बीता है हम को ये नादानी करते करते
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
'वहशत' इस मिस्रा-ए-जुरअत ने मुझे मस्त किया
कुछ तो भाया है कि अब कुछ नहीं भाता है मुझे