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ग़ज़ल
निकल कर ख़ुद से बाहर भागने से ख़ुद में आने तक
फ़रार आख़िर है ये कैसा ये कैसी आज़माइश है
कामी शाह
ग़ज़ल
सुन के अदा-ए-ग़म की तेरे सब्र-ओ-शकेब हैं भागने पर
पाँव ठहरने मुश्किल हैं जब धाक पराई बैठ गई