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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक 'उम्र की तन्हाई
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
सरापा हुस्न-ए-समधन गोया गुलशन की कियारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधन से मारी है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मेरा माज़ी मुझ से बिछड़ कर क्या जाने किस हाल में है
मेरी तरह वो भी तन्हा हो ये भी तो हो सकता है