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ग़ज़ल
यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
ताज-महल को मरमरीं जिस्म की इक ग़ज़ल कहूँ
अपनी ग़ज़ल को नूर का उड़ता हुआ महल कहूँ
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
उँगलियों में रौशनी देते ज़मुर्रद के चराग़
मरमरीं बाज़ू का हल्क़ा सुर्ख़ याक़ूती हिसार
अहमद जहाँगीर
ग़ज़ल
शायद मिरी निगाह-ए-परस्तिश का सेहर था
मूरत वो मरमरीं सी मुझे बोलती मिली
प्रेम नारायण सक्सेना राज़
ग़ज़ल
बिक रहे हैं मर्मरी जिस्म एक रोटी के एवज़
ये गिरावट अब सुख़न-बाज़ार में भी आएगी