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ग़ज़ल
काविश-ए-पैहम आख़िर तक हासिल-ए-मर्ग-ए-मायूसी
ये भी कोई जीना है किस जीने पर मरता हूँ
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
फ़रेब-ए-आरज़ू अब तो न दे ऐ मर्ग-ए-मायूसी
हम उम्मीदों की इक दुनिया लुटा कर लौट आए हैं
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
'अनीस' एहसास-ए-दर्द-ओ-फ़र्त-ए-मायूसी को क्या कहिए
कि अब आँसू भी मेरी आँख से कमतर निकलते हैं
सय्यद अनीसुद्दीन अहमद रीज़वी अमरोहवी
ग़ज़ल
मेरे परवाने को अब मुज़्दा-ए-मायूसी है
क्यूँकि वो पर्दा-नशीं शाला-ए-फ़ानूसी है