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ग़ज़ल
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
राज़-ए-हस्ती राज़ है जब तक कोई महरम न हो
खुल गया जिस दम तो महरम के सिवा कुछ भी नहीं