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ग़ज़ल
रात-भर जो सामने आँखों के वो मह-पारा था
ग़ैरत-ए-महताब अपना दामन-ए-नज़्ज़ारा था
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
सियह बिस्तर पड़े हैं सुब्ह-ए-नज़्ज़ारा उतर आए
कि शब को ज़ीना ज़ीना कोई मह-पारा उतर आए
ज़काउद्दीन शायाँ
ग़ज़ल
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
नज़र के सामने इक दिन सर-ए-महफ़िल भी आएगा
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
फ़र्क़ जब लज़्ज़त-ए-एहसास में पाया न गया
दर्द देखा न गया तुम को दिखाया न गया
अली मंज़ूर हैदराबादी
ग़ज़ल
हुस्न उन का अपने ज़ौक़-ए-दीद में पाता हूँ मैं
सामने हो कर वो छुपते हैं तड़प जाता हूँ मैं