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ग़ज़ल
गए दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
राज़ इलाहाबादी
ग़ज़ल
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता