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ग़ज़ल
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
अपने ही दम से है चर्चा कुफ़्र और इस्लाम का
गाह आबिद हूँ ख़ुदा का गह पुजारी राम का
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है
हम को मोहर्रम और रक़ीबों को ईद है
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका
फाँस की तरह खटकता है जिगर में तिनका
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
मिली दाद इतनी 'अनवर' जैसे बे-माया सुख़नवर को
मआल-ए-इंकिसारी तुम ने अहल-ए-अंजुमन देखा
अनवर सादिक़ी
ग़ज़ल
किन मंज़िलों में गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार है
उन का करम भी मेरी तबीअ'त पे बार है