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ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मैं राजा गिध हूँ न दश्त-ज़ादा न मास-ख़ोरा
मैं फिर भी बस्ती के मुर्दा-ख़ोरों में रह चुका हूँ
इमरान राहिब
ग़ज़ल
मैं तो इक मांस का टुकड़ा हूँ मिरी क्या औक़ात
ग़म का कीड़ा तो पहाड़ों को भी खा जाता है