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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
हम ही उन को बाम पे लाए और हम ही महरूम रहे
पर्दा अपने नाम से उट्ठा आँख मिलाई लोगों ने
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
मारा मुझे भी सान के ग़ैरों में उन ने 'मीर'
क्या ख़ाक में मिलाईं मिरी जाँ-फ़िशानीयाँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मैं ने तो कुछ आस्तीं के साँप गिनवाए थे बस
तुम ने क्यूँ आँखें मिलाई हैं पशेमानी के साथ