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ग़ज़ल
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ला-फ़ता-इल्ला-अली है शान में जिस की नुज़ूल
दोस्ताँ उस शाह-ए-मर्दां से जवाँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
फ़ातिहा भी तिरे मरक़द पे पढ़ूँ या न पढ़ूँ
तुझ को मुर्दा कहूँ या ज़िंदा-ए-जावेद कहूँ
ज़हीन शाह ताजी
ग़ज़ल
कोई भी लफ़्ज़-ए-इबरत-आश्ना मैं पढ़ नहीं सकता
बसीरत को न-जाने क्या हुआ मैं पढ़ नहीं सकता