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ग़ज़ल
क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल
यहाँ तो रात की बेदारियाँ मुसल्लम हैं
मगर वहाँ भी हसीं अँखड़ियों में ख़्वाब नहीं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
लोग दे देते हैं टूटे हुए प्याले मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
जोश-ए-वहशत में मुसल्लम हो गया इस्लाम-ए-इश्क़
कूचा-गर्दी से मिरी पूरा हुआ एहराम-ए-इश्क़
अबुल कलाम आज़ाद
ग़ज़ल
मुसल्लम थी सख़ावत जिस की दुनिया भर में उस ने
मुझे तनख़्वाह-ए-बे-दीनार पर रक्खा हुआ था
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जावेदानी हूँ मैं ऐ दुनिया परस्तिश कर मिरी
ये मुसल्लम है कि तू फ़ानी है मैं फ़ानी नहीं
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मुसल्लम देख कर याक़ूब मुर्दे से हुए बद-तर
जो यूसुफ़ का दरीदा पैरहन होता तो क्या होता
अफ़सर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मिरी बातों पे दुनिया की हँसी कम होती जाती है
मिरी दीवानगी शायद मुसल्लम होती जाती है