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ग़ज़ल
और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी शहर से निकलीं रुस्वा हूँ
तुझ को देखा बातें कर लीं मेहनत हुई वसूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जामा-ए-उल्फ़त बुनते आए रिश्तों के धागों से हम
उम्र की क़ैंची काट गई अब काहे को इतनी मेहनत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
ग़ुलाम रह चुके तोड़ें ये बंद-ए-रुस्वाई
कुछ अपने बाज़ू-ए-मेहनत का एहतिराम करें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
मेहनत कर के हम तो आख़िर भूके भी सो जाएँगे
या मौला तू बरकत रखना बच्चों की गुड़-धानी में
विलास पंडित मुसाफ़िर
ग़ज़ल
हर जीवन की वही विरासत आँसू सपना चाहत मेहनत
साँसों का हर बोझ बराबर जितना तेरा उतना मेरा
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मैं कि एक मेहनत-कश मैं कि तीरगी-दुश्मन
सुब्ह-ए-नौ इबारत है मेरे मुस्कुराने से
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
कर ले ऐ दिल जान को भी रंज-ओ-ग़म में तू शरीक
ये जो मेहनत तुझ पे है कुछ कुछ मगर बट जाएगी