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ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'दर्द' हर-चंद मैं ज़ाहिर में तो हूँ मोर-ए-ज़ईफ़
ज़ोर निस्बत है वले मुझ को 'सुलैमान' के साथ
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ये कामिल यक़ीं है कि जिस दिन भी अपने मुक़ाबिल में आया
मिरी ज़ात में मोरचा-बंद ख़ुद-सर मुझे मार देंगे