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ग़ज़ल
कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में
'मोहसिन' मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन'
ये नाज़ कम है कि मैं भी उस का कभी रहा हूँ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
यूँ भी कम-आमेज़ था 'मोहसिन' वो इस शहर के लोगों में
लेकिन मेरे सामने आ कर और भी कुछ अंजान हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
बारहा ख़्वाब में पा कर मुझे प्यासा 'मोहसिन'
उस की ज़ुल्फ़ों ने किया रक़्स घटाओं जैसा
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
मिरे बारे में कुछ सोचो मुझे नींद आ रही है
मुझे ज़ाएअ' न होने दो मुझे नींद आ रही है
मोहसिन असरार
ग़ज़ल
ले गया 'मोहसिन' वो मुझ से अब्र बनता आसमाँ
उस के बदले में ज़मीं सदियों की प्यासी दे गया
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
वो भी क्या लोग हैं 'मोहसिन' जो वफ़ा की ख़ातिर
ख़ुद-तराशीदा उसूलों पे भी अड़ जाते हैं