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ग़ज़ल
इस ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ओ-लब पे उन्हें क्यूँ न हो नख़वत
तातार है उन का हलब उन का यमन उन का
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
उस लब-ए-जाँ-बख़्श की हसरत ने मारा जान से
आब-ए-हैवाँ यमन-ए-तालेअ' से मिरे सम हो गया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
वो ज़ुल्फ़ है तो हर्फ़-ए-ततार-ओ-ख़ुतन ग़लत
इस लब के होते नाम-ए-अक़ीक़-ए-यमन ग़लत
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
उस रश्क-ए-मेहर के लब-ए-रंगीं को देख कर
ग़ैरत से लग उठी दिल-ए-ला'ल-ए-यमन में आग