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ग़ज़ल
कुछ गुल ही से नहीं है रूह-ए-नुमू को रग़बत
गर्दन में ख़ार की भी डाले हुए है बाँहें
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
न किसी गीत से रग़बत न शग़फ़ नग़्मों से
सिर्फ़ मीरा के भजन सुनता है कान्हा दिल का