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ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर रहनुमा हैं और दिल में बद-गुमानी है
तिरे कूचे में जो जाता है आगे हम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तलब में सिद्क़ है तो एक दिन मंज़िल पे पहुँचोगे
क़दम आगे बढ़ाओ ख़ुद को अपना रहनुमा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं