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ग़ज़ल
शाह नसीर
ग़ज़ल
चले थे वो सो राह-ए-इश्क़ को दुश्वार कहते थे
न हम ने इक सुनी उन की हमारे यार कहते थे
सिद्धार्थ साज़
ग़ज़ल
सर में राह-ए-इश्क़ पर चलने का है सौदा अभी
कौन सी मंज़िल है मेरी ये नहीं सोचा अभी
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
ग़ज़ल
काग़ज़-ए-अब्री पे लिख हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़-ए-इश्क़
गिर्द उस के बर्क़ की तहरीर खींचा चाहिए
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
नाला है ख़ाना-ज़ाद-ए-इश्क़ लेक कहाँ सर-ओ-दिमाग़
अपने तो क़ाफ़िले के बीच जो है जरस ख़मोश है
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
झुका कर एक मैं सर नाम अपना कर दिया रौशन
फ़ुनून-ए-इश्क़ में कम कोई परवाना सा पक्का है
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
इश्क़ अहल-ए-वफ़ा बीच उसे क़द्र है क्या ख़ाक
वो दिल कि जो गर्द-ए-रह-ए-दिलदार न होवे