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ग़ज़ल
जवानी वस्ल की लज़्ज़त पे राग़िब कर ही देती है
तुम्हें इस बात का ग़म क्यूँ है ऐसा हो ही जाता है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
इस तरह हैरान हैं सब देख कर 'राग़िब' मुझे
जैसे कोई आ गया हो मुस्तक़िल जाने के बाद
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
किस किस को बताऊँ कि मैं बुज़दिल नहीं 'राग़िब'
इस दौर में मफ़्हूम-ए-शराफ़त ही अलग है
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
आरज़ू दिल की है 'राग़िब' उम्र भर रौशन रहे
जो यक़ीं का इक दिया है मेरे उस के दरमियाँ
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
क़ल्ब-ए-'राग़िब' में 'अजब शान से है जल्वा-फ़गन
दिलरुबाई का हसीं ताज-महल या'नी तू
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
'राग़िब' वो मेरी फ़िक्र में ख़ुद को भी भूल जाएँ
ऐसी तो कोई बात नहीं चाहता था मैं
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
गाँव में अब गाँव जैसी बात भी बाक़ी नहीं
यानी गुज़रे वक़्त की सौग़ात भी बाक़ी नहीं