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ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला
जिसे मैं चाँद समझा था वो जुगनू भी नहीं निकला
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
तेरी ये ज़ुल्फ़ें नहीं तेरे रुख़-ए-रौशन के पास
अब्र के दो टुकड़े उठ कर आए हैं गुलशन के पास
मुर्ली धर शाद
ग़ज़ल
रौशन है जहाँ नूर से उस पर्दा-नशीं के
ख़ुर्शीद में ज़र्रा रुख़-ए-रौशन की ज़िया है
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
ग़ज़ल
वफ़ूर-ए-ज़र वफ़ूर-ए-ऐश में तो बारहा 'रौशन'
बहुत से लोग ऐसे हैं ख़ुदा को भूल जाते हैं
रौशन लाल रौशन
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे