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ग़ज़ल
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
में रौंदता हुआ काँटों को यूँ गुज़रता हूँ
कि रह-रवों को सुहूलत हो आने जाने में
अनवारूल हसन अनवार
ग़ज़ल
ये तू नहीं कि वादा-ए-वफ़ा को रौंदता फिरे
ये मैं हूँ सरफ़रोश-ए-दिल जो कह दिया वो हो चुका
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
बुलंदियों को पस्तियों को रौंदता चला गया
हँसी-ख़ुशी तुम्हारे हर क़दम से खेलता हुआ
पंडित अमर नाथ होशियार पुरी
ग़ज़ल
काँटों को रौंदता मैं बढ़ता चला जाता हूँ
शौक़-ए-दीदार में मंज़िल का भी एहसास नहीं
विशनू कुमार शाैक़
ग़ज़ल
ये कह कर आबला-पा रौंदते जाते हैं काँटों को
जिसे तलवों में कर लें जज़्ब उसे सहरा समझते हैं