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ग़ज़ल
तबीअ'त बे-नियाज़-ए-लज़्ज़त-ए-ग़म होती जाती है
किसी से क्या मिरी दिल-बस्तगी कम होती जाती है
राजेश कुमार औज
ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-एहसास-ए-ग़म से दिल को बहलाते रहे
कुछ अधूरे ख़्वाब थे रह रह के याद आते रहे
नाज़िश सह्सहरामी
ग़ज़ल
किसी के भूल जाने से मोहब्बत कम नहीं होती
मोहब्बत ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती
ग़म बिजनौरी
ग़ज़ल
मुक़द्दर को तिरे मंज़ूर कुछ 'ग़म' है तो ये ही है
कि तुझ सा इस ज़माने में कोई बे-दिल नहीं मिलता
ग़म बिजनौरी
ग़ज़ल
अरे 'ग़म' लग़्ज़िश-ए-सोज़-ए-जिगर का कैफ़ क्या कहिए
ज़बाँ मजबूर हो जाती है जब दिल में उतरती है
ग़म बिजनौरी
ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-ग़म से तड़पने में मज़ा आता है
लज़्ज़त-ए-ग़म से तबीअ'त मिरी भर जाने दो
मोहम्मद अब्बास सफ़ीर
ग़ज़ल
ग़ैर की शिकायत क्या शौक़-ए-लज़्ज़त-ए-ग़म से
मैं भी हो गया शामिल अपना दिल दुखाने में