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ग़ज़ल
हम हैं वो मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार कि अपने पर से
वारना जिस को कि होवे वो छुड़ाता है हमें
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
तालिब जोहरी
ग़ज़ल
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया