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ग़ज़ल
बाइ'स-ए-तस्कीन है 'वारिस' हर घड़ी मेरे लिए
मिदहत-ए-ख़ैर-उल-बशर महबूब-ए-रब्बानी की बात
वारिस रियाज़ी
ग़ज़ल
ये मता-ए-रंज-ओ-ग़म और शब-ए-हिज्र का ये 'आलम'
था कहाँ मिरा मुक़द्दर तिरी बे-रुख़ी से पहले