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ग़ज़ल
पुराने दोस्तों से अब मुरव्वत छोड़ दी हम ने
मु'अज़्ज़िज़ हो गए हम भी शराफ़त छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील
जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मोहब्बत आसमाँ को जब ज़मीं करने की ज़िद ठहरी
तो फिर बुज़दिल उसूलों की शराफ़त दरमियाँ क्यूँ हो
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
इस क़दर हम हो चुके रुस्वा वफ़ा के नाम पर
अब शराफ़त छोड़ दी बद-नामियाँ ही ठीक हैं