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ग़ज़ल
घरों में साथ बैठे हैं सर-ए-बाज़ार बैठे हैं
नक़ाब अपनों का ओढ़े आज-कल अग़्यार बैठे हैं
डॉक्टर आज़म
ग़ज़ल
'आज़म' इस वहशी दुनिया में हम ने ये भी देखा है
ख़ून बहा जो अपनों का वो ख़ून अपनों ने चाट लिए
इमाम आज़म
ग़ज़ल
न हो जाए कहीं फिर आप से तुम तुम से तू 'आज़म'
हुदूद-ए-अक़्ल से बाहर निकल जाने का वक़्त आया