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ग़ज़ल
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जम्अ' ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
कोह-शिगाफ़ तेरी ज़र्ब तुझ से कुशाद-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब
तेग़-ए-हिलाल की तरह ऐश-ए-नियाम से गुज़र
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दिल पर मिरे ही शाक़ नहीं है तिरा फ़िराक़
ख़ामोश हैं चमन में अनादिल तिरे बग़ैर