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ग़ज़ल
दुनिया ग़रज़ की रह गई अब इस से क्या ग़रज़
चलिए कि लुत्फ़-ए-शिरकत-ए-महफ़िल नहीं रहा
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
पुर्सिश-ए-ग़म के साथ थी शिरकत-ए-ग़म निगाह में
कितना मलाल ले गए कितना मलाल दे गए
अताउर्रहमान जमील
ग़ज़ल
कितनी कैफ़-आवर है इन की शिरकत-ए-ग़म भी 'उरूज'
मातम-ए-दिल की जगह जश्न-ए-दिल-ए-मरहूम है
उरूज ज़ैदी बदायूनी
ग़ज़ल
क़लक़ मेरठी
ग़ज़ल
मुद्दत में तुम मिले हो क्यूँ ज़िक्र-ए-ग़ैर आए
मैं अपने साए से भी ख़ल्वत में बद-गुमाँ हूँ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
तिरी ज़ात-ए-मुक़द्दस है मुबर्रा शिर्क-ए-ग़ैरी से
कि नूर-ए-ज़ात में साया-सिफ़त हस्ती है ला मेरी
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
ये जो कहा कि पास-ए-इश्क़ हुस्न को कुछ तो चाहिए
दस्त-ए-करम ब-दोश-ए-ग़ैर यार ने रख दिया कि यूँ
एस ए मेहदी
ग़ज़ल
क्यूँ जानते हैं सनअत-ओ-हिरफ़त को बाग़-ए-ख़ुल्द
ग़ैरों की हम निगाह में हैं ख़ार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बुरा हो बद-गुमानी का वो नामा ग़ैर का समझा
हमारे हाथ में तो परचा-ए-अख़बार था क्या था