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ग़ज़ल
लिपटना पर्नियाँ में शोला-ए-आतिश का पिन्हाँ है
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हूँ वो बे-ख़ुद कि ये है नाला-ए-सोज़ाँ पे गुमाँ
शोला-ए-आतिश-ए-रुख़्सार चले आते हैं
तअशशुक़ लखनवी
ग़ज़ल
फेर था क़िस्मत का वो चक्कर था मेरे पाँव का
जिस को 'शो'ला' गर्दिश-ए-हफ़्त-आसमाँ समझा था मैं
द्वारका दास शोला
ग़ज़ल
अस्प-ए-ताज़ी को मयस्सर नहीं चारा 'शो'ला'
और तन-ज़ेबी-ओ-आराइश-ए-ख़र है कि जो थी