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ग़ज़ल
असग़र सलीम
ग़ज़ल
असग़र सलीम
ग़ज़ल
शो'ला-ए-गुल से रंग-ए-शफ़क़ तक आरिज़-ओ-लब की बात गई
छिड़ गया जब भी तेरा क़िस्सा ख़त्म हुआ दिन रात गई
सईद अफ़सर
ग़ज़ल
क़ाफ़िले का क़ाफ़िला ही राह में गुम कर दिया
तुझ को तो ज़ालिम दलील-ए-रह-रवाँ समझा था मैं
द्वारका दास शोला
ग़ज़ल
अस्प-ए-ताज़ी को मयस्सर नहीं चारा 'शो'ला'
और तन-ज़ेबी-ओ-आराइश-ए-ख़र है कि जो थी