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ग़ज़ल
ऐ 'शौक़' ये जफ़ाएँ हैं क्या ये सितम हैं क्या
हर इम्तिहाँ में बैठ कोई इम्तिहाँ न छोड़
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
यही तो 'शौक़'-ए-मजबूरी है अपनी बज़्म-ए-साक़ी में
हज़ार इंकार करते हैं मगर जाना ही पड़ता है
ख़्वाजा शौक़
ग़ज़ल
मेरी नज़रों से कोई ऐ 'शौक़' सीखे जज़्ब-ए-इश्क़
बन के तिल आँखों में उस के रुख़ का ख़ाल आ ही गया