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ग़ज़ल
न कर सकूँगी मैं 'ख़ंदा' अब ए'तिबार उस का
पता है क्या है मोहब्बत का कारोबार मुझे
फ़र्ख़न्दा रज़वी
ग़ज़ल
सना हाश्मी
ग़ज़ल
गुज़र सकूँगा न इस ख़्वाब ख़्वाब बस्ती से
यहाँ की मिट्टी भी ज़ंजीर-ए-पा है मेरे लिए