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ग़ज़ल
मैं इक परकार सा सय्यार भी हूँ और साबित भी
जहाँ सारा मिरे क़दमों की पैमाइश में रहता है
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
हर साबित-ओ-सय्यार की इक हद है मुक़र्रर
अफ़्लाक की वुसअ'त में भी दीवारें हैं दर है
रफ़ीउद्दीन राज़
ग़ज़ल
अभी सवाबित-ओ-सय्यार में है फ़स्ल बहुत
सिमट चुकी है बहुत काएनात किस ने कहा