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ग़ज़ल
मार ले वो निगह-ए-नाज़ तो रुत्बा हो बुलंद
सर हो ऊँचा मिरा गर नोक-ए-सिनाँ तक पहुँचे
बेताब अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
शाह नसीर
ग़ज़ल
क़ामत-ए-बाला का रुत्बा है दो-बाला सर्व से
तुर्रा है सुम्बुल पे ज़ुल्फ़-ए-यार क़ैसर-बाग़ में
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
उठा लेता हूँ जो आए मुसीबत अपने सर पर मैं
सहा करता हूँ ज़ुल्म-ए-दिल-रुबा आशिक़ की ख़ू हो कर
नसीम देहलवी
ग़ज़ल
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
ढूँढती मुझ को निगाह-ए-आश्ना थी मैं न था
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
शाह नसीर
ग़ज़ल
तुम को तो मिला रुत्बा सर के ताज होने का
ज़ेर-ए-पा है मेरा सर तुम लहू लहू क्यों हो
यासमीन हुसैनी ज़ैदी निकहत
ग़ज़ल
मिरी सब दु'आएँ क़ुबूल हैं मुझे और कुछ नहीं चाहिए
मिरे पास है मय-ए-ग़म-रुबा मिरा सर है ज़ानू-ए-यार पर
बिसमिल देहलवी
ग़ज़ल
सर्व हुआ है खड़ा तेरी तवाज़ो' कतीं
जब सीं सुना बाग़ में क़द को तिरे दिल-रुबा