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ग़ज़ल
रक़ीबों को सर-ए-महफ़िल जो बाज़ू में बिठाते हैं
दिल-आज़ारी मिरी करते हैं आप अच्छा नहीं करते
मंसूर ख़ुशतर
ग़ज़ल
बोला सर-ए-मंसूर सर-ए-दार पे 'एहसाँ'
हक़ है कि सज़ा-वार थे पिंदार बहुत की
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
मिरी आँखों से ख़ूनीं अश्क यूँ गिरते हैं पलकों पर
लहू सूली के ऊपर जूँ सर-ए-मंसूर से टपके
आरिफ़ुद्दीन आजिज़
ग़ज़ल
मेरी आँखों से ख़ूनीं अश्क यूँ गिरते हैं पलकों पर
लहू सूली के ऊपर जियों सर-ए-मंसूर सें टपके
आरिफ़ुद्दीन आजिज़
ग़ज़ल
जो मुझ में दूसरा है सब जिसे 'मंसूर' कहते हैं
मुझे भी आज उस शोरीदा-सर से बात करनी है