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ग़ज़ल
सोचता हूँ ऊला मिसरा जब कभी 'नायाब' मैं
ख़ुद को लिखवाता है बढ़ कर मिस्रा-ए-सानी मुझे
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
एक कहानी ख़त्म हुई है एक कहानी बाक़ी है
मैं बे-शक मिस्मार हूँ लेकिन मेरा सानी बाक़ी है
कुमार पाशी
ग़ज़ल
मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला