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ग़ज़ल
मुज़्तर हूँ किस का तर्ज़-ए-सुख़न से समझ गया
अब ज़िक्र क्या है सामा-ए-आक़िल को थामना
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
हमारी ज़िंदगी है इक बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ 'आक़िल'
हमारे ताइर-ए-दिल की ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती
धर्मपाल आक़िल
ग़ज़ल
फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू-ए-दहर मत खा मर्द-ए-आक़िल हो
समझ आतिश-कदा इस गुलशन-ए-शादाब-ए-दुनिया को
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
उठाने को ये दीवारें तो 'सीमा' सब उठा लेंगे
मगर इक साया-ए-दीवार बनना कितना मुश्किल है
सीमा फ़रीदी
ग़ज़ल
हुए मिस्मार तो अब 'साइमा' ये सोच बैठे हैं
हवा का देख कर के रुख़ बदलना सीख लेंगे हम
साइमा इस्हाक़
ग़ज़ल
मुझे है सदमा-ए-हिज्राँ अदू को सैकड़ों ख़ुशियाँ
मिरे उजड़े हुए घर को भरी महफ़िल से क्या निस्बत