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ग़ज़ल
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
चली जाएगी इक ही रुख़ हवा ताकि ज़माने की
न पूरा होगा तेरा दौर ये ऐ आसमाँ कब तक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इस क़दर मज़बूत मौसम पर रही किस की गिरफ़्त
मैं कि मुझ से सीना-ए-आब-ओ-हवा रौशन हुआ