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ग़ज़ल
रू-ब-रू उस के कभू बात न सुधरी हम से
हिल्म है चैन है दहशत है हया है क्या है
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
ग़ज़ल
है शुजा'अत-ओ-सख़ा हिल्म हया 'क़ासिम-अली'
शान में शेर-ए-ख़ुदा के हैं ख़तम चारों एक
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
'वक़ार-हिल्म' अली वालों से ख़ुदा की क़सम
पुल-सिरात के रस्ते भी राह रखते हैं
वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी
ग़ज़ल
इक-बटा-दो को करूँ क्यूँ न रक़म दो-बटा-चार
इस ग़ज़ल पर है क़वाफ़ी का करम दो-बटा-चार
वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी
ग़ज़ल
दीवान-ए-बे-नुक़त से है तेरा 'वक़ार-हिल्म'
कहती है अहल-ए-फ़न से ये गौहर-ब-कफ़ हवा
वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी
ग़ज़ल
उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें
ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं