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ग़ज़ल
दुख़्तर-ए-रज़ से फ़क़त में नहीं महफ़ूज़ 'हुज़ूर'
कौन मज्लिस है कि जिस में ये सराही न गई
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जब दुख़्तर-ए-रज़ ले के 'हुज़ूर' आ गया साक़ी
फिर ज़ोहद बरादर न रहा है न रहेगा
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
लेते हैं चूर करने को ही संग-दिल हुज़ूर
क्या है वगर्ना शीशा-ए-दिल उन के काम का
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मरता जो हिज्र में तो न मिलता मैं यार से
मुझ पर 'हुज़ूर' बस कि है एहसान-ए-ज़िंदगी
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
तुर्फ़ा हालत थी कभी हम ने न देखा था 'हुज़ूर'
माह-ए-ताबाँ यक तरफ़ मेहर-ए-दरख़्शाँ यक तरफ़
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
सुख़न-ए-वा'ज़-ओ-नसीहत दिल-ए-पुर-ख़ूँ को 'हुज़ूर'
यूँ है ज्यूँ शीशा-ए-मय के लिए संग और नमक
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
रम तो तिरा सभों से है ऐ बुत-ए-मन हिरन भला
अपने 'हुज़ूर' से कभी राम रहा तो क्या हुआ
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
गर नहिं है 'हुज़ूर' उस को हवस दीद की उस के
क्यूँ खोले हबाबों से है यूँ दीदा-ए-तर मौज
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मुर्दों से 'हुज़ूर' हो न सके मिन्नत-ए-दूना
सर जाए पर उन से न उठे बार-ए-तमन्ना
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अपने ही घर में ख़ुदाई है जो कोई समझे 'हुज़ूर'
हाँ मगर क़ैद-ए-ख़ुदी से टुक रिहाई चाहिए
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अगर ज़बाँ से बयाँ हाल-ए-ग़म न हो पाया
हुज़ूर-ए-दोस्त मिरी ख़ामुशी ने साथ दिया
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जलाता है ये परवानों को वस्फ़-ए-शो'ला-रूयाँ से
ज़बान-ए-ख़ामा भी अब तो ज़बान-ए-शमा-ए-सोज़ाँ है
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
तफ़रीक़ हुस्न-ए-शमा-ओ-गुल में ज़रा नहीं
सोज़-ओ-गुदाज़-ए-बुल्बुल-ओ-परवाना एक है