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ग़ज़ल
हुदूद-ए-वक़्त से बाहर अजब हिसार में हूँ
मैं एक लम्हा हूँ सदियों के इंतिज़ार में हूँ
आदिल मंसूरी
ग़ज़ल
हुदूद-ए-वक़्त में महदूद कर के इंसाँ को
ख़ुद अपने वास्ते क्यूँ ला-मकाँ बनाया है
मोहम्मद अली मंज़र
ग़ज़ल
ये है बेहतर हुदूद-ए-वक़्त के बाहर निकल जाएँ
यहाँ अब दिन सलामत हैं न ही रातें सलामत हैं
मनीश शुक्ला
ग़ज़ल
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-वक़्त का अब ख़ूँ निचोड़ना होगा
कि संग-ए-सख़्त अदाओं की अंजुमन में है