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ग़ज़ल
मेरा मुक़द्दर हाथ में मेरे वक़्त से मेरे रिश्ते नाते
झूटी तसल्ली देने वाली कोई किताब-ए-फ़ाल नहीं मैं
रज़्ज़ाक़ अफ़सर
ग़ज़ल
'मुसहफ़ी' करवटें बदले है क़लक़ में तुझ बिन
उस्तुख़्वाँ उस का जो है क़ुर्आ-ए-रुम्माल है आज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हमारे नाम से ही फ़ाल का आग़ाज़ कीजेगा
परिंदा जो भी फिर क़ुर्आ निकाले आप रख लीजिए
मुहम्मद राशिद अतहर
ग़ज़ल
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
है अपने हक़ में वा-शुद-ए-दिल फ़ाल की किताब