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ग़ज़ल
दहन उस रू-ए-किताबी में है पर ना-पैदा
इस्म-ए-आज़म वही क़ुरआँ में निहाँ है कि जो था
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है
उसे जब भी सोचा बुला लिया उसे जो भी चाहा बना दिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
यही नहीं कि ज़ख़्म-ए-जाँ को चारा-जू मिला नहीं
ये हाल था कि दिल को इस्म-ए-आरज़ू मिला नहीं
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
ज़माना हर घड़ी वर्ना नई साज़िश में रहता है
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
इस्म बन कर तिरे होंटों से फिसलता हुआ मैं
बर्फ़-ज़ारों में उतर आया हूँ जलता हुआ मैं