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ग़ज़ल
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हाथ जिस से कुछ न आए उस की ख़्वाहिश क्यूँ करूँ
दूध की मानिंद मैं पानी बिलो सकता नहीं
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
मिरे साथ बूद-ओ-नबूद में जो धड़क रहा है वजूद में
इसी दिल ने एक जहान का मुझे रू-शनास तो कर दिया