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ग़ज़ल
वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तन्हा होगा चाँद
राही मासूम रज़ा
ग़ज़ल
तुम लाख सियाहत के हो धनी इक बात हमारी भी मानो
कोई जा के जहाँ से आता नहीं उस देस न जाओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
हम को दिवाना जान के क्या क्या ज़ुल्म न ढाया लोगों ने
दीन छुड़ाया धर्म छुड़ाया देस छुड़ाया लोगों ने
कैफ़ भोपाली
ग़ज़ल
घर के दुखड़े शहर के ग़म और देस बिदेस की चिंताएँ
इन में कुछ आवारा कुत्ते हैं कुछ हम ने पाले हैं