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ग़ज़ल
कभी ख़ुश हो के करते हो 'सिराज' अपने की जाँ-बख़्शी
कभी उस के बुझा देने कूँ क्या क्या दाव करते हो
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़ुदा भी जानता है ख़ूब जो मक्कार बैठे हैं
हरम में सर-निगूँ कुछ क़ाबिल-ए-फ़िन्नार बैठे हैं
डॉक्टर आज़म
ग़ज़ल
मचल रहा था दिल बहुत सो दिल की बात मान ली
समझ रहा है ना-समझ की दाव उस का चल गया