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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अगर मेरी जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती
तो फिर महशूर उन के साथ अपनी ज़िंदगी होती
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
मैं अबू-बक्र-ओ-अली वाला हूँ 'यूनुस-तहसीन'
मुझ को मुल्ला के मसालिक से मिलाने का नहीं
यूनुस तहसीन
ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कभी न तुम ने मिज़ाज-ए-दिल-ए-हज़ीं पूछा
बस अब मुआफ़ करो आज़मा के देख लिया