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ग़ज़ल
वो मोहब्बत-आफ़रीं देता है हस्ब-ए-ज़र्फ़-ए-इश्क़
फिर किसी से भी तलब-गार-ए-वफ़ा होता नहीं
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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वो मोहब्बत-आफ़रीं देता है हस्ब-ए-ज़र्फ़-ए-इश्क़
फिर किसी से भी तलब-गार-ए-वफ़ा होता नहीं